MA Semester-1 Sociology paper-III - Social Stratification and Mobility - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2683
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।

उत्तर -

पितृसत्ता और महिलाओं का दमन
(Patriarchy and the Subordination of Women)

नृशास्त्री नूर यलमान का मत है कि हिंदू समाज व्यवस्था का मूल मंत्र एक सीमाबद्ध संरचना (क्लोज्ड स्ट्रक्चर) खड़ा करना रहा है ताकि जमीन स्त्री और आनुष्ठानिक खासियतें एक दायरे में संरक्षित रहें। ये तीनों आपस में गुंथे हुए हैं और इनका इस रूप में बने रहना स्त्री यौनिकता पर कठोर नियंत्रण के बिना संभव नहीं। स्त्री समूचे ढांचे की धुरी है। जमीन हो अथवा आनुष्ठानिक खासियत ( जाति की शुद्धता), स्त्री पर कड़ी निगरानी के बिना इनका संरक्षण कठिन है। जाति व्यवस्था की धारणा के मुताबिक किसी व्यक्ति का रक्त द्विआयामी होता है अर्थात् उसकी आनुष्ठानिकता का निर्माण माता और पिता दोनों की तरफ से होता है। इसलिए दोनों को समान जाति से होना चाहिए। इसे मनुस्मृति समेत सभी धर्मशास्त्रों में बार-बार दुहराया गया है। लेकिन यदि माता और पिता अलग-अलग जातियों से हों तो? इस स्थिति से निपटने के लिए वर्णसंकर सिद्धान्त गढ़ा गया। अंतरजातीय सम्बन्धों, जिनमें कई जातियों को जन्म देने वाला धिक्कार्य प्रतिलोम भी शामिल है, के लिए गढ़े गए वर्णसंकर सिद्धान्त के बावजूद शास्त्रों में इसकी भर्त्सना ही मिलती है। अवज्ञा करने वालों के लिए कठोर सजा के प्रावधान हैं। मिसाल के लिए, निम्न जातियों के पुरुष के लिए मृत्यु की सजा और दोषी स्त्री के लिए अंग-भंग, शारीरिक दण्ड और जाति से बाहर निकालने की सजा।

व्यवस्था के विध्वंश का भय

जातियों के बीच के मिश्रण का जो भय मनु के वर्णसंकर में व्याप्त है वह पहली . सहस्राब्दी के उत्तरार्द्ध तक विद्यमान रहा। ब्राह्मणवादी ग्रंथों से यह पता चलता है कि नियमों के पालन संबंधी निर्देश के प्रति जोर डालने के साथ-साथ उनमें विद्रोही स्त्रियों की ताकत अथवा सभी स्त्रियों का नियमों को न मानने की क्षमता को स्वीकार किया गया है। अर्थात स्त्री हिन्दू समाज के गठन को तहस-नहस कर सकती है, उसे ब्राह्मणवादी ग्रंथ स्वीकार करते हैं। स्त्रियों में भी खासकर ऊँची जातियों की स्त्रियाँ 'नैतिक संत्रास' (मोरल पैनिक) की पात्र मानी गई हैं। यही कारण है कि स्त्रियों की यौनिकता को शास्त्रों में संस्थानीकृत कर दिया गया, यानी नियमों के तहत बांध सा दिया गया और राजसत्ता / राजा इसे लागू करने की ओर "अग्रसर हुए। जैसा कि मैसोपोटामिया के संदर्भ में गर्डा लर्नर ने दिखाया है, वहाँ की व्यवस्था में स्त्रियों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए विचारधारा परिवार के पुरुष मुखिया पर उनकी निर्भरता, वर्गजन्य विशेषाधिकार और अनुशासन में रहने वाली स्त्रियों का महिमामंडन और अंततः बलप्रयोग जैसे हथकंडे अपनाए गए।

स्त्री यौनिकता का नियंत्रण

ईसा पूर्व आठवीं से पाँचवीं सदी के दरम्यान कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और शहरीकरण के दूसरे चरण के आविर्भाव के साथ वर्ग विभाजन और जाति आधारित पदानुक्रम स्थापित करने के प्रयास (हालांकि कमजोर) दिखाई देते हैं। विचार और आचार (कर्मकाण्ड) के स्तर पर झंडाबदारी का जिम्मा ब्राह्मणों को सौंपा गया जिसका वे दावा भी करते आ रहे थे। हालांकि उन्हें कुछ तबकों की तरफ से चुनौतियाँ मिल रही थीं। जन्म आधारित पदानुक्रम की व्यवस्था तो शुरू नहीं हो पाई थी लेकिन पितृवंशीय उत्तराधिकारता और भूमि पर निजी हक की रीतियाँ वजूद में आ चुकी थीं।

पितृवंशीय उत्तराधिकारिता और निजी सम्पत्ति की व्यवस्था का उदय वह पृष्ठभूमि थी जिसमें मातृत्व और स्त्री यौनिकता के बीच स्पष्ट भेद बरतने की जरूरत उत्पन्न हुई। पितृवंशीय उत्तराधिकारिता को सुनिश्चित करने के लिए स्त्री यौनिकता को इस तरह से बाँधे जाने की जरूरत आ पड़ी कि वह व्यवस्था द्वारा मान्य मातृत्व मात्र की होकर रह जाए। इसके लिए जरूरी था कि स्त्री केवल एक पुरुष से ही यौन सम्बन्ध कायम करे यानी वह किसी एक पुरुष की होकर रह जाए। जब जाति व्यवस्था सुदृढ़ रूप लेने लगी तो जाति की शुद्धता के बने और बचे रहने के लिए ऐसे पुरुष का स्त्री की ही जाति से होना भी जरूरी हो गया। इतना ही नहीं, मातृत्व का महिमामण्डन कर उसे आनुष्ठानिक बना दिया गया। विवाह, गर्भाधान, पुत्र जनन जैसे कई अनुष्ठानों की बात की गई। इसका विस्तृत विश्लेषण सुकुमारी भट्टाचार्य ने किया है। माँ के रूप में स्त्री पूज्य मानी गई। मनु के शब्दों में, 'स्त्रियाँ' खासकर प्रजनन के लिए ही बनाई गईं, वे पूजनीय हैं, घर की रोशनी हैं। पत्नीत्व से वैध मातृत्व के संक्रमण के लिए स्त्री की यौनिकता को व्यवस्थित करना जरूरी हो गया।

समाज व्यवस्था की निरंतरता और पुत्रोत्पत्ति के माध्यम से पुरुष का अमरत्व प्राप्त कर पाने की स्थिति में आने के लिहाज से समूची व्यवस्था में स्त्री की महत्वपूर्ण स्थिति और भूमिका को मनु ने स्पष्ट व्यक्त किया है-

बच्चे को जनने, उसके पालन पोषण और अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन सम्बन्धी बातों के साथ-साथ धार्मिक संस्कारों के निष्पादन, पूर्वजों और खुद के लिए दैवी कृपा के मामलों में पुरुष पत्नी पर आश्रित है।

लब्बोलुआब - यह कि सामाजिक और नैतिक व्यवस्था की निरंतरता के लिए स्त्री पर निर्भरता को देखते हुए ही स्त्री की यौनिकता की 'समस्या' से निपटने की स्थिति उत्पन्न हुई। सम्बन्धों को नई संरचना में दोयम स्थिति पर होने के बावजूद प्रजनन क्षमता पर स्त्री का वश था। इससे निपटने का एक रास्ता यह निकाला गया कि स्त्री की इस क्षमता यानी स्त्री के अंतर्जात स्वभाव को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाए और साथ ही उसे खतरनाक अथवा भयकारी घोषित किया जाए। इसकी मिसाल प्राचीन भारत में रचे गए आचार और आख्यान दोनों ही संहिताएँ हैं। महाभारत में अष्टावक्र को हम यह कहते पाते हैं कि स्त्री के लिए 'सेक्स' से बढ़कर आनंद अथवा 'विनाशकारी आवेग' और कुछ नहीं; उम्रदराज स्त्रियाँ भी यौनावेग ग्रस्त रहती हैं; तीनों लोकों में स्त्री की यौनेच्छा की तृप्ति संभव नहीं।

स्त्री स्वभाव और स्त्रीधर्म प्रजनन / पुनरोत्पादन की संरचनाओं को कायम रखने में विचारधारा की स्थिति

अन्य पराधीन समूहों और स्त्री के बीच एक महत्वपूर्ण भेद उसके स्वभाव और उसके धर्म (कर्तव्य) के बीच तादात्म्य का न होना था। निम्न जातियों के लिए ब्राह्मण विधि निर्माताओं ने जो आचार व्यवहार तय कर रखा था वह उनके स्वभाव के प्रतिकूल नहीं ठहरता था। जबकि एक यौनिक अथवा जैविक प्राणी के रूप में स्त्री का जो स्वभाव था वह उसके लिए निर्धारित आचार व्यवहार यानी स्त्रीधर्म के प्रतिकूल ठहरता था। स्त्रीधर्म का तात्पर्य है पतिव्रता बने रहना। लेकिन स्त्री स्वभाव उसे सदैव धर्मच्युत होने के लिए उकसाता रहता है। प्रागैतिहासिक समाजों में स्त्रियों की प्रजनन शक्ति के प्रति विद्यमान रहे नि:शंक रुख पर उस व्यवस्था का रंग चढ़ गया जिसमें स्त्री यौनिकता पर कड़े नियंत्रण की जरूरत थी। स्त्री के प्राणित्व के अनिवार्य और स्वाभाविक हिस्से के रूप में देखी जाने वाली उसकी यौनिकता और मातृत्व शक्ति पर वर्ग/ जाति आधारित उदीयमान समाजों में वर्चस्व प्राप्त तबके के पुरुषों द्वारा गठित की जा रही नई सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं के हित-पोषण के लिए पुरुष तंत्र का नियंत्रण जरूरी था।

इस अवस्था में स्त्री पराधीनता अनिवार्य थी। कारण, तभी स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण का उपक्रम वस्तुतः प्रभावी हो पाता। स्त्रियों को उत्पादन के स्रोतों से अनधिकृत करके न केवल आर्थिक स्तर पर बल्कि उसे नियमों के दायरे में लाकर पुरुषों के अधीन कर दिया गया। वस्तुतः प्रजनक और उत्पादक दोनों ही के रूप में स्त्रियाँ खुद पुरुषों की संपत्ति बन गईं। प्रमुख घरेलू कर्मकाण्डों के निष्पादन के स्तर पर भी वे स्वायत्त नहीं थीं, वे कर्मकाण्डों का हिस्सा होती थीं लेकिन खुद के लिए अथवा खुद से वे इनका आयोजन नहीं कर सकती थीं। यदि कहीं उनकी खुदी थी भी तो व्रतों में। लेकिन व्रत भी अपने लिए नहीं बल्कि पति, बेटे अथवा भाई के लिए।

स्त्रियों पर नियंत्रण की व्यवस्था के तीन उपक्रम अथवा स्तर थे- पहला, विचारधारा; दूसरा, स्त्रियों को उनके नाते-रिश्ते में आने वाले पुरुषों के नियंत्रण में रखकर; और तीसरा, अनुशासन और तय किए गए नियमों के दायरे को लांघने का दुःसाहस करने वाली स्त्री को दण्डित करने के राजाधिकार के स्तर पर। विचारधारा के स्तर पर स्त्रियों पर नियंत्रण के लिए उन्हें स्त्रीधर्म अथवा पतिव्रत धर्म की दीक्षा दी जाती थी। स्त्रियाँ पत्नी के लिए निर्धारित किए गए आचार व्यवहार आत्मसात करती थीं ताकि वे समाज के ठेकेदारों द्वारा स्थापित पतिव्रता के आदर्श की कसौटी पर खरी उतर सकें। हिंदू समाज में ऊँची जातियों में पितृसत्तात्मक वर्ग जाति संरचना की आचार संहिता रचने का कार्य ब्राह्मणों के जिम्मे था।

किसी भी व्यवस्था की मजबूती का सूचक उसके विचारधारा की सूक्ष्म-स्तरीय व्यापकता है। इस लिहाज से ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को सफल और मजबूत कहा जा सकता है। कारण, स्त्रियों के लिए इसने पतिव्रता की जो धारणा गढ़ी वह उनके दिलोदिमाग में काफी गहरी पैठ बनाने में कामयाब रही। स्त्रियों का अपनी यौनिकता का खुद ही नियंत्रण कर अथवा पतिव्रत धर्म निबाह कर सम्मानित और गौरवान्वित महसूस करने की मिसाल शायद ही किसी अन्य पितृसत्ता में देखने को मिले। परिवर्तन की धारणा ने न केवल ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण की पर्दापोशी की बल्कि स्त्रियों की ही सक्रिय भागीदारी के माध्यम से असमान और पदानुक्रमित संरचना के आसान पुनरुत्पादन को भी संभव किया। इस तरह, स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण के उपक्रम और स्त्री की पराधीनता ने एक विचारधारा के रंग में रंगकर 'स्वाभाविक' का रूप अख्तियार कर लिया।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण क्या है? सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की क्या आवश्यकता है? सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
  3. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं?
  4. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण किसे कहते हैं? सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण में अन्तर बताइये।
  5. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के सम्बन्ध में पदानुक्रम / सोपान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- असमानता से क्या आशय है? मनुष्यों में असमानता क्यों पाई जाती है? इसके क्या कारण हैं?
  8. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  9. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के अकार्य/दोषों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  10. प्रश्न- वैश्विक स्तरीकरण से क्या आशय है?
  11. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण की विशेषताओं को लिखिये।
  12. प्रश्न- जाति सोपान से क्या आशय है?
  13. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता क्या है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किन कारणों से आता है?
  16. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की खुली एवं बन्द व्यवस्था में गतिशीलता का वर्णन कीजिए तथा दोनों में अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता का विवेचन कीजिए तथा भारतीय समाज में गतिशीलता के निर्धारक भी बताइए।
  18. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता का अर्थ लिखिये।
  19. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के पक्षों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  21. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  22. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण पर मेक्स वेबर के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  23. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  24. प्रश्न- डेविस व मूर के सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  25. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  26. प्रश्न- डेविस-मूर के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  27. प्रश्न- स्तरीकरण की प्राकार्यात्मक आवश्यकता का विवेचन कीजिये।
  28. प्रश्न- डेविस-मूर के रचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिये।
  29. प्रश्न- जाति की परिभाषा दीजिये तथा उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये।
  30. प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
  31. प्रश्न- जाति प्रथा के गुणों व दोषों का विवेचन कीजिये।
  32. प्रश्न- जाति-व्यवस्था के स्थायित्व के लिये उत्तरदायी कारकों का विवेचन कीजिये।
  33. प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
  34. प्रश्न- भारतवर्ष में जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तनों का विवेचन कीजिये।
  35. प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।
  36. प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं? वर्ग की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था के रूप में वर्ग की आवधारणा का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अंग्रेजी उपनिवेशवाद और स्थानीय निवेश के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में उत्पन्न होने वाले वर्गों का परिचय दीजिये।
  39. प्रश्न- जाति, वर्ग स्तरीकरण की व्याख्या कीजिये।
  40. प्रश्न- 'शहरीं वर्ग और सामाजिक गतिशीलता पर टिप्पणी लिखिये।
  41. प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
  42. प्रश्न- धर्म क्या है? धर्म की विशेषतायें बताइये।
  43. प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।
  44. प्रश्न- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिये।
  45. प्रश्न- समाज एवं धर्म में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
  46. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में धर्म की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  47. प्रश्न- जाति और जनजाति में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  48. प्रश्न- जाति और वर्ग में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति व्यवस्था को रेखांकित कीजिये।
  50. प्रश्न- आंद्रे बेत्तेई ने भारतीय समाज के जाति मॉडल की किन विशेषताओं का वर्णन किया है?
  51. प्रश्न- बंद संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  52. प्रश्न- खुली संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  53. प्रश्न- धर्म की आधुनिक किन्हीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये।
  54. प्रश्न- "धर्म सामाजिक संगठन का आधार है।" इस कथन का संक्षेप में उत्तर दीजिये।
  55. प्रश्न- क्या धर्म सामाजिक एकता में सहायक है? अपना तर्क दीजिये।
  56. प्रश्न- 'धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है। इस सन्दर्भ में अपना उत्तर दीजिये।
  57. प्रश्न- वर्तमान में धार्मिक जीवन (धर्म) में होने वाले परिवर्तन लिखिये।
  58. प्रश्न- जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
  59. प्रश्न- जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?
  60. प्रश्न- जेण्डर संवेदशीलता का समाज में क्या भूमिका है?
  61. प्रश्न- जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  62. प्रश्न- समाजीकरण और जेण्डर स्तरीकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  63. प्रश्न- समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण बताइये।
  64. प्रश्न- लैंगिक असमता का अर्थ एवं प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  65. प्रश्न- परिवार में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- परिवार में जेण्डर के समाजीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिये।
  67. प्रश्न- लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  68. प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।
  69. प्रश्न- लैंगिक श्रम विभाजन के हाशियाकरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा कीजिए।
  70. प्रश्न- महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- पितृसत्तात्मक के आनुभविकता और व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  72. प्रश्न- जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से क्या आशय है?
  73. प्रश्न- पुरुष प्रधानता की हानिकारकं स्थिति का वर्णन कीजिये।
  74. प्रश्न- आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है?
  75. प्रश्न- महिलाओं की कार्यात्मक महत्ता का वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता का वर्णन कीजिये।
  77. प्रश्न- आर्थिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता की स्थिति स्पष्ट कीजिये।
  78. प्रश्न- अनुसूचित जाति से क्या आशय है? उनमें सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक न्याय का वर्णन कीजिये।
  79. प्रश्न- जनजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए तथा जनजाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  81. प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  82. प्रश्न- जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिये।
  83. प्रश्न- सीमान्तकारी महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासो का वर्णन कीजिये।
  84. प्रश्न- अल्पसंख्यक कौन हैं? अल्पसंख्यकों की समस्याओं का वर्णन कीजिए एवं उनका समाधान बताइये।
  85. प्रश्न- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति एवं समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों से क्या आशय है?
  87. प्रश्न- सीमान्तिकरण अथवा हाशियाकरण से क्या आशय है?
  88. प्रश्न- सीमान्तकारी समूह की विशेषताएँ लिखिये।
  89. प्रश्न- आदिवासियों के हाशियाकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- जनजाति से क्या तात्पर्य है?
  91. प्रश्न- भारत के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या कीजिये।
  92. प्रश्न- अस्पृश्य जातियों की प्रमुख निर्योग्यताएँ बताइये।
  93. प्रश्न- अस्पृश्यता निवारण व अनुसूचित जातियों के भेद को मिटाने के लिये क्या प्रयास किये गये हैं?
  94. प्रश्न- मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्यायें लिखिये।

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